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झारखंड: बोकारो के बिरहोर टंडा आंगनबाड़ी केंद्र पर लग रहे गंभीर आरोप
- Photo by : NCR Samachar
संक्षेप
झारखंड: बोकारो जिला अंतर्गत गोमिया प्रखंड के सियारी पंचायत के बिरहोर टंडा आंगनबाड़ी केंद्र बंद ही रहता है। 14 मार्च 9:50 में जांच के दौरान आंगनबाड़ी केंद्र बंद पाया गया। आंगनबाड़ी की सेविका बुधनी देवी आंगनबाड़ी से गायब पाई गई ।जबकि वह खुद एक संथाली महिला है, गोमिया प्रखंड मुख्यालय से मात्र 10 किलोमीटर की दुरी में यह आंगनबाड़ी केंद्र है।
विस्तार
झारखंड: बोकारो जिला अंतर्गत गोमिया प्रखंड के सियारी पंचायत के बिरहोर टंडा आंगनबाड़ी केंद्र बंद ही रहता है। 14 मार्च 9:50 में जांच के दौरान आंगनबाड़ी केंद्र बंद पाया गया। आंगनबाड़ी की सेविका बुधनी देवी आंगनबाड़ी से गायब पाई गई ।जबकि वह खुद एक संथाली महिला है, गोमिया प्रखंड मुख्यालय से मात्र 10 किलोमीटर की दुरी में यह आंगनबाड़ी केंद्र है। झारखंड सरकार अपनी संकल्पना के मुताबिक बिरहोर आदिम जनजातियों के विकास के लिए प्रयासरत रहती है। इसके बावजूद भी ठेकेदार, अफसर और दलालों की मिली भगत से इनके विकास योजनाओं में मिलने वाले फंड का बंदर बांट किया जाता हैं। बोकारो जिले के आंगनवाड़ी केंद्र जो सुदूर वर्ती ग्रामीण इलाकों में चल रहे हैं वह करीब करीब बंद ही रहते हैं और इन केंद्रो के सेविकाओं के पति लोग ज्यादातर ब्लॉक के नेता मुखिया, वार्ड ,और प्रखंड के दलाल किस्म के लोग होते हैं। इनके दबंगई से परेशान होकर गोमिया प्रखंड का सी.डी.पी.ओ. अधिकारी सेविकाओं से सेटिंग करके आंगनबाड़ी केंद्रो का संचालन करते हैं। सी.डी.पी.ओ को चुप रहने के लिए सेविकाओं द्वारा मोटी कमीशन दिया जाता है। नेता लोगों का वोट बैंक खिसक न जाए इसके डर से भी नेता चुपचाप रहते हैं। बोकारो जिले में आंगनबाड़ी केंद्रो की संख्या 2256 और गोमिया प्रखंड में 302 केंद्र हैं। झरखंड में पाए जाने वाले बिरहोर जनजाति आदिम जनजातियों की श्रेणी में आते हैं और यह आदिम जनजाति धीरे-धीरे लुप्त होते जात रहे हैं। इनकी संख्या झारखंड में मात्र 10000 के लगभग बच गई है। हजारीबाग, रांची, पलामू, सिंहभूम और बोकारो जिले के जंगलों मे ये पाए जाते हैं। बिरहोर का शाब्दिक अर्थ "बिर" का अर्थ होता है जंगल, और "होर" का मतलब मनुष्य यानी जंगल में रहने वाला मनुष्य। बिरहोरों में शिक्षा का अभाव है इसकी वजह से अपने अधिकार के लिए न तो किसी अधिकारी से और न कोई नेता से अपनी तरक्की से संबंधी कोई मांग नहीं रख पाते हैं। बोकारो जिला औद्योगिक प्रधान जिला है ये लोग दैनिक मजदूरी और जंगल का सामान जड़ी -बूटी बांस की टोकरी, रस्सी बेचकर अपना गुजारा करते हैं। इनका जीवन बहुत मुश्किल से गुजर रहा है इसके बावजूद भी आजादी की इतने दिनों के बाद भी इनके जीवन संचालन का आज तक लोकतांत्रिक सरकारें मुकम्मल व्यवस्था नहीं कर पाई। ये लुप्त आदिम जनजाति ना तो आज तक कोई रैली निकाले हैं ना कोई धरना प्रदर्शन किया है और ना हीं किसी से कोई शिकवा शिकायत करते हैं। इनकी सादगी की वजह से सभी लोग इनका नाजायज आर्थिक शोषण करते रहते हैं। खुद इनके साथ जंगलों में रहने वाले जनजाति लोग इनके साथ सौतेला व्यवहार करने से बाज नहीं आते। यदि सरकारी तंत्र के लोग तरह व्यवहार इनके साथ करता रहा तो इन आदिम जनजातियों के बच्चों का भविष्य क्या होगा।
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