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मध्य प्रदेश: न्याय की कुर्सी मौन रहे तो बयान बेअसर समयबद्ध न्याय की जरूरत
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संक्षेप
मध्य प्रदेश: जब न्याय का सिंहासन ही मौन हो जाए, तो बयान न्याय नहीं—परिहास लगते हैं। हाल ही में देश के एक पूर्व न्यायाधीश द्वारा दिया गया यह बयान चर्चा में है कि “बिना जांच-पड़ताल के आरोपियों को आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है।”
विस्तार
मध्य प्रदेश: जब न्याय का सिंहासन ही मौन हो जाए, तो बयान न्याय नहीं—परिहास लगते हैं। हाल ही में देश के एक पूर्व न्यायाधीश द्वारा दिया गया यह बयान चर्चा में है कि “बिना जांच-पड़ताल के आरोपियों को आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है।” M.C. Singla केस की गूंज M.C. Singla मामला न्यायिक प्रणाली की इसी असंगति का प्रतीक है। इस प्रकरण में न केवल विभागीय जवाबदेही पर सवाल उठे, बल्कि यह भी सामने आया कि सत्य की खोज और न्याय की गति दोनों एक-दूसरे से कितनी दूर जा चुकी हैं। वर्षों बीत जाने के बाद भी जब एक साधारण व्यक्ति को न्याय नहीं मिलता, तो यह केवल एक केस की देरी नहीं, बल्कि न्याय व्यवस्था की असफलता का दर्पण बन जाता है। न्याय की कुर्सी स्वयं निष्क्रिय रह जाए, तो ऐसे बयान जनता की पीड़ा को और गहरा करते हैं। समाज को आज न बयान चाहिए, न बहाने बल्कि चाहिए समयबद्ध न्याय जहाँ हर निर्णय सच्चाई और जवाबदेही दोनों की कसौटी पर खरा उतरे।
यह बात सुनने में न्याय की संवेदना का प्रतीक लगती है, परंतु यह सवाल भी उठाती है कि जब वे स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे तब उन्होंने इस अन्यायपूर्ण जांच व्यवस्था और मंद गति न्याय प्रणाली के सुधार हेतु क्या कदम उठाए? एक न्यायाधीश का पूरा जीवन “जांच और साक्ष्य” की प्रक्रिया में बीतता है। लेकिन प्रश्न यह है कि — कितने प्रकरण उनके कार्यकाल में लगे और निर्णय तक पहुँचे? कितने निर्दोष व्यक्ति न्याय की प्रतीक्षा में जेलों में सड़ते रहे, और कितने पीड़ित पक्ष “साक्ष्य के अभाव” के नाम पर न्याय से वंचित रह गए? न्यायपालिका की गरिमा शब्दों से नहीं, निर्णयों से स्थापित होती है। यदि वर्षों तक न्यायाधीश के रूप में पद पर रहते हुए किसी ने सुधार नहीं किए, तो सेवानिवृत्ति के बाद संवेदना-भरे बयान केवल “लोकप्रियता की राजनीति” प्रतीत होते हैं।